भनत कविन्द सुर नर नाग नारिन की सिच्छा है कि इच्छा
रूप रच्छन अछेह की। पतिव्रत पारावार बारी कमला है
साधुता की कै सिला है कै कला है कुल गेह की॥२॥
कैसीही लगन जामे लगन लगाई तुम प्रेम की पगनि के
परेखे हिये कसकै। केतिको छपाय के उपाय उपजाय प्यारे
तुमतें मिलाप के बढ़ाये चोप चसके॥ भनत कविन्द हमें
कुंज में बुलाय कर बसे कित जाय दुःख देकर अवस के।
पगनि में छाले परे नाँधिवे को नाले परे तऊ लाल लाले परे
रावरे दरस के॥३॥
ऐसे मैं न मैन के न देखे ऐन सैन के जगैया दिन रैन के
जितैया सौति सीन के। कमल कलीन मुकुलित जु करनहार
कानन की कोरन लौं कोरन रंगीन के। भनत कवीन्द्र
भावती के नैन चायक से देखे मैन पायक से नायक नवीन
के। साँचे हैं अमीन के अमीन मानो मीन के बखानै का मृगीन
के खगीन पन्नगीन के॥४॥
राजै रस मैं री तैसी बरसा समै री चढ़ी चंचला नचैरी
चकचौंधा कौंधा वारैं री। व्रती व्रत हारैं हिये परन फुहारैं
कछू छोरैं कछ धारैं जलधर जलधारैं री। भनत "कविन्द"
कुञ्ज भौन पौन सौरभ सों काके न कँपाय प्रान परहथ
पारैं री। काम के तुका से फूल डोलि डोलि डारें मन औरे
किये डारैं ये कदम्बन की डारैं री॥५॥
सहर मझारत पहर एक लागि जैहैं छोर में नगर के सराय
हैं उतारे की। कहत कविन्द मग माँझही परैगी साँझ खबर
उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की। घर के हमारे परदेश को सिधारे
याते दया के बिचारे हम रीति राह बारे की। उतरो नदी केतीर
बर के तरेही तुम चौंकी जिन चौंकी तहाँ पाहरू हमारे की॥६॥