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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३२९

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कविता-कौमुदी
 

होत निबाह न आपनो लीने फिरे समाज।
चूहा बिल न समात है पूँछ बाँधिये छाज॥५०॥
अपनी प्रभुता को सबै बोलत झूँठ बनाय।
वेश्या बरस घटावहीं योगी बरस बढ़ाय॥५१॥
कछु कहि नीच न छेड़ियै भलो न बाको संग।
पाथर डारे कीच में उछरि बिगारै अंग॥५२॥
ऊपर दरसै सुमिल सी अंतर अनमिल आँक।
कपटी जन को प्रीति है खीरा को सीफाँक॥५३॥
सबसों आगे होय कै कबहुँ न करिये बात।
सुधरे काज समाज फल बिगरे गारी खात॥५४॥
बुरौ तऊ लागत भलौ भली ठौर पर लीन।
तिय नैननि नीकौ लगे काजरजदपिसलीन॥५५॥
गुरुमुख पढ्यो न कहतु है पोथी अर्थ विचारि।
सो शोभा पावै नहीं जार गर्भयुत नारि॥५६॥
क्षमा खड्ग लीने रहे खलको कहा बसाय।
अगिन परी तृन रहित थल आपहिते बुझि जाया॥५७॥
ओछे नर के पेट में रहैं न मोटी बात।
आध सेर के पात्र में कैसे सेर समात॥५८॥
बचन रचन कापुरुष के कहे न छिन ठहराय।
ज्यों कर पद मुख कछप के निकसिनिकसि दुर जाय॥५९॥
जुवा खेले होतु है सुख सम्पति को नास।
राज काज नलते छुट्यो पाँडव किय वनवास॥६०॥
सरस्वति के भंडार की बड़ी अपूरब बात।
ज्यौं खरचैं त्यौं त्यौं बढ़ै बिनखरचेघटिजात॥६१॥
बिरह पीर व्याकुल भए आयो पीतम गेह।
जैसे आवत भाग तें आग लगे पर मेह॥६२॥