घाघ
घाघ का जन्म सं॰ १७५३ में हुआ। ये कब तक जीवित रहे, इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता। इनकी कविता में नीतिकी बातें खूब पाई जाती हैं। नीचे इनके कुछ छंद घा लिखे जाते हैं:—
१
बनियक सखरज ठकुरक हीन। बयदक पूत व्याधि नहिं चीन॥
पंडित चुपचुप बेसवा मइल। कहैं घाघ पाँचों घर गइल॥
२
नसकट खटिया दुलकन घोर। कहे घाघ यह बिपतक ओर॥
बाछा बैल पतुरिया जोय। ना घर रहे न खेती होय॥
३
भुइयाँ खेड़े हर ह्वै चार। घर ह्वै गिहिथिन गऊ दुधार॥
अरहर की दाल जड़हन का भात। गागल निबुआ औ घिव तात॥
सहरस खंड दही जो होय। बाँके नैन परोसे जोय॥
कहे घाघ तब सबही झूँठा। उहाँ छाँड़ि इहवे बैकूँठा॥
४
कुचकट पनही बतकट जोय। जो पहलौठी बिटिया होय॥
पातरि कृषी बौरहा भाय। घाघ कहैं दुःख कहाँ समाय॥
५
मुये चाम से चाम कटावें भुइँ सँकरी माँ सांवैं।
घाघ कहैं ये तीनों भकुवा उढ़रि गये पर रोवैं॥
६
सुथना पहिरे हर जोतैं औ पौला पहिरि निरावैं।
घाघ कहै ये तीनों भकुआ सिर बोझा औ गावैं॥