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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३४०

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रसनिधि
२८५
 

सरस रूप कौ भार पल सहि न सकै सुकुमार।
याही तैं ये पलक जनु झुकि आवैं हर बार॥८॥
सुनियत मीननि मुख लगै बंसी अबै सुजान।
तेरी ये बंसी लगै मीनकेत कौ बिन॥९॥
जिहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक।
तिहि मग फिरत सनेहिया किये गरेवाँ चाक॥१०॥
चतुर चितेरे तुव सबी लिख तन हिय ठहराइ।
कलम छुवत कर आँगुरी कटी कटाछन जाइ॥११॥
मन गयंद छवि मद छके तोर जंजीरन जात।
हित के झीने तार सों सहजै ही बँधि जात॥१२॥
उड़ौ फिरत जो तूल सम जहाँ तहाँ बेकाम।
ऐसे हरुये कौ धरयो कहा जान मन नाम॥१३॥
लेउ न मजनू गोर ढिग कोऊ लैलै नाम।
दरदवन्त कौ नेक तौ लैन देउ बिसराम॥१४॥
चसमन चसमा प्रेम कौ पहिले लेहु लगाइ।
सुन्दर मुख वह मीतकौं तब अवलोकौ जाइ॥१५॥
अद्भुत गति यह प्रेम की बैनन कही न जाइ।
दरस भूख लागे द्वगन भूखहि देत भगाइ॥१६॥
प्रेम नगर में दूग बया नोखे प्रगटे आइ।
दो मन को करि एक मन भाव देत ठहराइ॥१७॥
न्यारौ पैड़ौ प्रेम कौ सहसा धरौ न पाव।
सिर के पैंड़ै भावते चलौ जाय तौ जाव॥१८॥
अद्भुत गति यह प्रेम की लखौ सनेही आइ।
जुरै कहूँ टूटै कहूँ कहूँ गाँठ परि जाइ॥१९॥
अद्भुत बात स्नेह की सुनौ सनेही आइ।
जाकी सुध आवै हिये सबही सुध बुध जाइ॥२०॥