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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३६०

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गिरिधर कविराय
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जग में होत हँसाय चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान राग रँग मनहिं न भावै॥
कह गिरिधर कविराय दुःख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय माँहिं कियो जो बिना विचारे॥१८॥
बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेइ॥
जो बनि आवै सहज में ताही सुधि में चित्त देइ॥
ताही में चित देह बात जोई बनि आवै।
दुर्ज्जन हँसै न कोइ चित्त में खता न पावै।
कह गिरधर कविराय यहै करु मन परतीति॥
आगे को सुख समुझि होइ बीती सो बीती॥१९॥
साईं अपने चित्त की भूलि न कहिये कोइ।
तबलग मनमें राखिये जबलग कारज होइ॥
जबलग कारज होइ भूलि कबहूँ नहि कहिये।
दुरजन हँसे न कोय आप सियरे ह्वै रहिये॥
कह गिरधर कविराय बात चतुरन के लाईं।
करतूती कहि देत आप कहिये नहि साईं॥१०॥
साई अपने भ्रात को कबहुँ न दीजै त्रास।
पलक दूर नहिं कीजिये सदा राखिये पास॥
सदा राखिये पास त्रास कबहूँ नहिं दीजै।
त्रास दियो लंकेश ताहि की गति सुनि लीजै॥
कह गिरधर कविराय रामसों मिलियो जाई॥
पाय विभीषण राज लंकपति बाज्यो साईं॥२१॥
साईं समय न चूकिये यथाशक्ति सन्मान।
को जाने को आइ है तेरी पौरि प्रमान॥
तेरी पौरि प्रमान समय असमय तकि आवै।
ताको तू मन खोलि अंक भरि हृदय लगावै॥

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