सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
ब्रजबासीदास
३१३
 

देहि बेगि मैं बहुत भुखानो माँगत ही माँगत बिरुझानो
जसुमति हँसत करत पछतायो काहेको मैं चंद दिलायो
रोवत है हरि बिनही जाने अब धों कैसे करिके माने
विविध भाँतिकरि हरिहिभुलावै आन बतावै आन दिखावै

कहत जसोदा कौन विधि समझाऊँ अब कान्ह।
भूलि दिखायो चंद मैं ताहि कहत हरि खान॥
अनहोनी क्यों होय तात सुनी यह बात कहुँ।
याहि खात नहिँ कोय चंद खिलौना जगत को॥

यही देत नित माखन मोको छिनछिन देत तात सो तोको
जो तुम श्याम चंद को खैहो बहुरो फिरि माखन कहँ पैहो
देखत रहौ खिलौना चंदा हठ नहिँ कीजै बाल गोबिन्दा
मधु मेवा पकवान मिठाई जो भावे सो लेहु कन्हाई
पालागों हठ अधिक न कीजै मैं बलि रिसही रिस तन छीजै
खसिखसि कान्ह परतकनियाँ ते दैससि कहत नन्द रनियाँ तें
जसुमति कहत कहाधौं कीजै माँगत चन्द्र कहाँ तें दीजै
तब जसुमति इक जलपुट लीनों कर मैं लै तेहि ऊंच कीनो
ऐसे कहि श्यामहिँ बहकावै आव चन्द तोहिँ लाल बुलावै
याही में तू तन धरि आवै तोहिँ देखि लालन सुख पावै
हाथ लिये तोहिँ खेलत रहिये नेक नहीँ धरनी पर धरिये
जलपुट आनि धरनि पर राख्यो गहिआनडु सखि जननीभाख्यो

लेहु लाल यह चन्द्र मैं लीनों निकट बुलाय।
रोवै इतने के लिये तेरी श्याम बलाय॥
देखहु श्याम निहारि याभाजनमेंनिकटससि।
करी इती तुम आरि जा कारण सुन्दरसुवन॥

ताहि देखि मुसुकाय मनोहर बार बार डारत दोऊ कर
चन्दा पकरत जल के माहीं आवत कछू हाथ में नाहीँ