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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३७४

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बोधा
३१९
 


बोधा प्रेमी कवि थे। प्रेम के उपासक थे। प्रेम के मर्मज्ञ थे। इनकी कविता तरंगिणी में प्रेम ही की लहर लहराती है। यहाँ हम इनके कुछ छंद उद्धृत करते हैं:—

अति खीन मृनाल के तारहु ते तेहि ऊपर पाँव दै आवना है।
खुई बेह ते द्वार सकी न तहाँ परतीति को टाँड़ो लदावनो है॥
कवि बोधा अनी घनी नेजहु ते चढ़ि तापै न चित्तडरावना है।
यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पै धावनो है॥१॥
एक सुभान के आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को।
कैयो सतक्रतु की पदवी लुटियै लखि कै मुसुकाहट ताको॥
सोक जरा गुजरा न जहाँ कवि बोधा जहाँ उजरा न तहाँ को।
जान मिलै तो जहान मिलै नहिंजानमिले तो जहान कहाँको॥२॥
लोककी लाज औ सोक प्रलोकको वारिये प्रीतिके ऊपर दोऊ।
गाँव को गेह को देह को नातो सनेह में हाँतो करै पुनि सोऊ।
बोधा सुनीति निवाह करै घर ऊपर जाके नहीँ सिर होऊ।
लोक की भीत डेरात जो मीत तौप्रीतिकेपैंडेपरैजनि कोऊ॥३॥
बोधा किसू सो कहा कहिये सो बिथा सुनि पूरिरहै अरगाइकै।
याते भले मुख मौन धरैं उपचार करैं कहूँ औसर पाइ कै।
ऐसो न कोऊ मिल्यो कबहूँ जो कहै कछु रंच दद्या उर लाइकै।
आवतु है मुख लौं बढ़ि कै फिरि पीररहैयासरीर समाइ कै॥४॥
कबहूँ मिलिवो कबहूँ मिलिबो यह धीरज ही में घरैंवो करै।
उर ते कढ़ि आवै गरे ते फिरै मन की मनहीं में सिरैबो करै॥
कवि बोधा न चाउ सरी कबहुँ नितही हरवासों हिरैवो करै।
सहते ही बनै कहते न बनै मन ही मन पीर पिरैबो करें॥५॥
बिछुरे दद न होत खर सूकर कूकुरन को।
हंस मयूर कपोत सुधर नरन बिछुरन कठिन॥६॥