सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२२
कविता-कौमुदी
 

सोरह शृंगार कै नवेली के सहेलिन हूँ कीन्हीं केलि
मंदिर में कलपित केरे हैं। कहै पदमाकर सु पास ही गुलाब
पास खासे खसखास खसबोईन के ढेरे हैं। त्यों गुलाब
नौरन सों हीरन के हौज भरे दम्पति मिलाप हित आरती
उजेरे हैं। चोखी चाँदनीन पर चौरस चमेलिन के चन्दन की
चौकी चार चाँदी के चँगेरे हैं॥

चह चही चहल चहुँधा चारु चन्दन की चन्द्रक चमीन
चौक चौकन चढ़ी है आब॥ कहै पदमाकर फराकत फरस
बन्द फहरि फुहारनकी फरस फबी है फाब। मोद मद माती
मनमोहन मिले लै काज साजि मन मन्दिर मनोज कैसी मह
ताब। गोल गुल गादी गुल गोल में गुलाब गुल गजक
गुलाबी गुल गिन्दुक गले गुलाब॥

कौन है तू कित जाति चली बलि बीती निशाअधराति प्रमाने।
हैं। पदमाकर भावति हौं। निज भावत पै अबहीँ मुहि जाने॥
तौ अलबेली अकेली डरै किन क्यों डरौं मेरी सहाय के लानै।
है सखि लंग मनोभव सो भट कानलों बान सरासन ताने॥

झाकतिहैकाझरोखा लगी लग लागिबे कोयहाँ झेल नहीं फिर।
त्यों पदमाकर तीखे कटाक्षन कीसर कौसर सेल नहीं फिर॥
नैन नहीं कि घलाघल के घन घावन को कछु तेल नहीं फिर।
प्रीति पयोनिधि में धँसिकै हँसिकैकढ़िबो हँसीखेलनहींफिर॥