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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३८२

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पदमाकर
३२७
 

मन पैरत सो रस के नद में अति आनन्द‌में मिलि जैयतु है।
अब ऊँचे उरोज लखे तियके सुरराज के राजसों पैयतु है॥

२७

पाली पैजपन की प्रवेश करि पावक में पौन से सिताब
सहगौंन की गती भई। कहै पदमाकर पताका प्रेम पूरण की
प्रकट पतिव्रत की सौगुनी रती भई॥ भूमिहू अकाशहू पता-
लहू सराहै सब जाको यश गावत पवित्र मो मती भई। सुनत
पयान श्री प्रताप को पुरन्दर पै धन्य पटरानी जोधपुर में
सती भई॥

२८

चोरन गोरिन में मिलकै इतै आई है हाल गुवाल कहाँ की।
कौन विलोकि रह्यो प‌द्माकर वातिय की अवलोकनि खाँकी॥
धीर अबीर की धूँ धुरि में कछु फेर सों के मुख फेरकै झाँकी।
कै गई काटि करेजनि के कतरे कतरे पतरे करिहाँ की॥

२९

घर ना सुहात ना सुहात बन बाहिर हूँ बाग ना सुहात जो
खुशाल खुशवाही सों। कहै पदमाकर घनेरे धन धाम त्योहीँ
चैन ना सुहात चाँदनी हूँ योग जोही सों। साँझ हूँ सुहात ना
सुहात दिन माँझ कछु व्यापी यह बात सो बखानत हों तोही
सों। रातिहु सुहात ना सुहात परभात आली जब मन लागि
जात काहू निरमोही सों॥

३०

बगसि वितुंड दये झुंडन के झुंड रिपु मुंडन की मालि-
का दई ज्यों त्रिपुरारी को। कहै पदमाकर करोरन को कोष
दये षोड़सहू दीन्हें महादान अधिकारी को॥ ग्राम दये धाम
दये अमित अराम दये अध जल दीने जमती के जीवधारी