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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३८३

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३२८
कविता-कौमुदी
 

के॥ दाता जयसिंह दोय बातैं तौ। न दीनी कहूँ बैरिन को
पीठि और डीठि परनारी को॥

३१

सम्पति सुमेर की कुबेर की जु पावै ताहि तुरत लुटावत
बिलम्ब उर धारै ना। कहै पदमाकर सुहेम हय हाथिन के
हलके हजारन के बितर विचारै ना॥ दीन्हेगज बकस महीप
रघुनाथ राय याहि गज धोखे कहूँ काहू देइ डारैं ना। याही
उर गिरिजा गजानन को गोइ रही गिरितें गरेतें निज गोदतें
उतारै ना॥

३२

देव नर किन्नर कितेक गुन गावत पै पावत न पार जा
अनन्त गुन पूरे को। कहै पदमाकर सुगाल के बजावतही
काज करि देत जन जाचक जरूरे को॥ चन्द्र की छटान जुत
पन्नग फटान जुत मुकुट विराजै जटा जूटन के जूरे को। देखो
त्रिपुरारि की उदारता अपार जहाँ पैये फल चार फूल
एक दै धतूरे को॥

३३

आँनन्द के कन्द जग ज्यावत जगत बन्द्य दसरथ नन्द के
निबाहेई निबहिये। कहै पदमाकर पवित्र पन पालिने को
चौर चक्रपानि के चरित्रन को चहिये। अवध बिहारी के
बिनोदन में बींधि बींधि गीधा गुह गीधे के गुनानुवाद
गहिये। रैन दिन आठो जाम राम राम राम राम सीतागम
सीताराम सीताराम कहिये॥

३४

हानि अरु लाभ ज्यान जीवन अजीवनहूँ भोगहू वियोग
हू सँवेगहू अपार है। कहै पदमाकर इते पै और केते कहों