सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३०
कविता-कौमुदी
 

बत्तीसी, बैताल पच्चीसी, माधवानल और शकुंतला। इनके रचे पद्यों के कुछ नमूने मीचे दिये जाते हैं:—

चूक कछू बालक सों परै साधु न कबहूँ मन में धरैं।
घट घट माहिँ ज्योति ह्वै रहै ताही सों जग निर्गुण कहै॥
आपहि सिरजै आपहि हरै रहै मिल्यो बाँध्यो नहिं परै।
भू आकाश वायु जल जोति पंचतत्त्व ते देह जो होति॥
प्रभु की शक्ति सबनि में रहै वेद माहिँ विधि ऐसे कहै।
सहसबाहु अति चली बखान्यो परशुराम ताको बल मान्यो॥
वेणु रूप रावण हो भयो गर्व आपने सोऊ गयो।
भौमासुर बाणासुर कंस भये गर्व ते ते विध्वंस॥
श्रीमद गर्व करो जिन कोय त्यागे गर्व सो निर्भय होय।
सुनौ मुनीस सोई बड़ भागी जो सुर धेनु विप्र अनुरागी।
जा घर चरन साधु के परैं ते नर सुख सम्पति अनुसरैं॥

याचक कहा न माँगई दाता कहा न देय।
गृहसुत सुंदरिलोभ नहिँ तन धन दे यस लेय॥


 

जयसिंह

यसिंह रीवाँ के महाराज थे। इनका जन्म सं॰ १८२१ में हुआ। १८९१ तक इन्होंने राज्य किया। अपने जीवन काल में ही इन्होंने राज्याधिकार अपने पुत्र विश्वनाथसिंह को सौंप दिया था। ये लगभग १०० वर्ष तक जीवित रहे।

जयसिंह बड़े भक्त और सच्चे वैष्णव थे; यह इनकी रचना से अच्छी तरह बोध होता है। इन्होंने १८ ग्रंथों की रचना की थी। उनमें से कुछ के नाम ये हैं:— कृष्ण तरंगिणी, हरे