सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४०
कविता-कौमुदी
 

कविता भक्ति और उपदेश से पूर्ण है। सुना जाता है कि विश्वनाथ नवरत्न, चकोर पंचक दृष्टान्त तरंगिणी, काशी पंचरत्न, वैराग्य दिनेश, दीपक पंचक और अन्तर्लापिका नामक ग्रंथ भी इन्हीं के रचे हैं। इनकी कविता के कुछ छंद उदाहरणार्थ नीचे लिखे जाते हैं:—

जा मन होय मलीन सो पर संपदा सहै न।
होत दुःखी चित चोर को चितै चंद रुचि रैन॥१॥
तूठे जाके फल नहीं रुठे बहु भय होय।
सेब जु ऐसे नृपति को अति दुरमति ते लोय॥२॥
बहु छुद्रन के मिलन तें हानि बली की नाहिँ।
जूथ जम्बुकन तें नहीं केहरि कहुँ नसि जाहिँ॥३॥
पराधीनता दुःख महा सुख जग मैं स्वाधीन।
सुखी रमत सुक बन विषे कनक पींजरे दीन॥४॥
तहाँ नहीं कछु भय जहाँ अपनी जाति न पास।
काठ बिना न कुठार कहुँ तरु को करत बिनास॥५॥
नहीं रूप कछु रूप है विद्या रूप निधान।
अधिक पूजियत रूप ते बिना रूप विद्वान॥६॥
सरल सरल तें होय हित नहीं सरल अरु बंक।
ज्यों सर सुधहि कुटिल धनु डारै दूर निसंक॥७॥
केहरि को अभिषेक कब कीन्हों विप्र समाज।
निज भुज बल के तेज तें विपिन भयो मृगराज॥८॥
इक बाहर इक भीतरैं इक मृदु दुहु दिसि पूर।
सोहत नर जग त्रिविधि ज्यों बेर बदाम अँगूर॥९॥
वचन तजैं नहिँ सत पुरुष तजै प्रान बरु देस।
प्रान पुत्र दुहुँ परिहरयो वचन हेत अवधेस॥१०॥