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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३९६

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दीनदयाल गिरि
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कुंडलियाँ

जिन तरु को परिमल परसि लियो सुजस सब ठाम।
तिन भंजन करि आपनो कियो प्रभंजन नाम॥
कियो प्रभंजन नाम बड़ों कृतघन बरजोरी।
जब जब लगी दवागि दियो तब झोँकि झकोरी॥
बरनै दीनदयाल सेउ अब खल थल मरु को।
ले सुख सीतल छाँह तासु तोरया जिन तरुको॥१॥
केतो सोम कला करो करो सुधा को दान।
नहीं चन्द्रमनि जो द्रवै यह तेलिया पखान॥
यह तेलिया पखान बड़ी कठिनाई जाकी।
टूटी याके सीस बीस बहु बाँकी टाँकी॥
बरने दीनदयाल चंद तुमही चित चेतो।
कूर न कोमल होहिँ कला जो कीजे केतो॥२॥
बरखै कहा पयोद इत मानि मोद मन माँहिँ।
यह तो ऊसर भूमि है अंकुर जमिहै नाहिँ॥
अंकुर जमिहै नाहिँ बरष शत जा जल दैहै।
गरजै तरजै कहा वृथा तेरो श्रम जैहै॥
बरनै दीनदयाल न ठौर कुठौरहि परखै।
नाहक गाहक बिना बलाहक ह्याँ तू बरखै॥३॥
भौंरा अंत बसंत के है गुलाब इहि रागि।
फिरि मिलाप अति कठिन है या बन लगे दवागि॥
या बन लगे दवागि नहीं यह फूल लहैगो।
ठौरहि ठौर भ्रमात बड़ो दुःख तात सहैगो॥
वरने दीनदयाल किते दिन फिरिहै दौरा।
पछतैहै कर दये गये ऋतु पीछे भौंरा॥४॥