सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४४
कविता-कौमुदी
 

बरनै दीन दयाल नहीं अब बूड़ै थाहैं।
रहे महामुख बाय ग्रसन को भारी ग्राहैं॥१३॥
राही सोवत इत कितै चोर लगैं चहुँ पास।
तो निज धनके लेन को गिनैं नीद की स्वास॥
गिनैं नीँद की स्वास बास बसि तेरे डेरे।
लिये जात बनि भीत माल ये साँझ सबेरे॥
बरनै दीनदयाल न चीन्हत है तू ताही।
जाग जाग रे जाग इतै कित सोवत राही॥१४॥
हारे भूली गैल में गे अति पाय पिराय।
सुन्ते पथी अब तो रह्यो थोरो सो दिन आय॥
थोरो सो दिन आय रहे हैं संग न साथी।
या बन हैं चहुँ ओर घोर मतवारे हाथी॥
बरनै दीनदयाल ग्राम सामीप तिहारे।
सूधे पथ को जाहु भूलि भरमो कित हारे॥१५॥
चारो दिसि सूझै नहीं यह नद धार अपार।
नाव जर्जरी भार बहु खेवनहार गँवार॥
खेवनहार गँवार ताहि पर है मतवारो।
लिये भौंर में जाय जहाँ जलजंतु अखारो॥
बरनै दीनदयाल पथी बहु पौन प्रचारो।
पाहि पाहि रघुबीर नाम धरि धीर उचारो॥१६॥


 

विश्वनाथ सिंह

रीवाँ नरेश महाराजा विश्व नाथ सिंह महाराजा जयसिंह के पुत्र और महाराजा रघुराज सिंह के पिता थे। इनका जन्म सं॰ १८४६ में हुआ, ये सं॰ १८९१ में गद्दी पर बैठे और सं॰