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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४१८

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रघुराज सिंह
३६३
 

शिर मौर बसन तन में पियरो
हठ हेरि रत हमरो हियरो॥
उर सोहत मोतिन को गजरो
रत नारी अंखियन में कजरो॥
चितये चित चोरत सखि समरो
चितये बिन जिय न जियै हमरो॥
अलकैं अलि अजब लसैं चेहरो
झपि झूलि रह्यो कटिलौं सिहरो॥
युवती जन को जालिम मन जहरो
मन बैठत लखत मैन पहरो॥
पुनि ऐहैं नाहिं जनक शहरो
ले रि लोचन लाहु न करु गहरो॥
यक है वहि लखत बड़ो अनरो
पुनि रुकत न रोकेहु मन उनरो॥
चित चहत अरी लगि जाउँ गरो
रघुराज त्यागि जग को झगरो॥३॥
मोहिंतो भरोसो भूरि अपनी कमाई को।
कबहूँ काहू को नहीं कियो है भलाई को॥
कियो काम लोभ कोह मोह सों मिताई को।
रोज रोज पाल्यो निज नारि नाति भाई को॥
कबहूँ न पूज्यो साधु लैके आगुआई को।
पूरी प्रीति पापिन सों नारिहूँ पराई को॥
बाढ्यो है घमंड मोह माया ठाकुराई को।
बेस बजवायो द्वार पाप ही बधाई को॥
रोज रुजगार कियो जीवही सताई को।
सपन्यो न सोच्यो नाथ भक्ति सुखदाई को॥