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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४१७

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कविता-कौमुदी
 

राजत पुरद किरीट शिर प्रगटत प्रभा अखंडि॥
उयो मनहुँ गिरि नील पर अनुपम रवि छवि मंडि॥२८॥

गीत

भज मनो देवकी जठर महोदधि पूर्ण मृगांकमुदारम्।
यदुकुल कुमुद बिनोद बिकाशक बिभु बसुदेव कुमारम्।
नलिन नयन नलिनीरुहाननं नवनीरद तनु नीलम्।
समय बिजय कर चारु चतुर्भुज शोभित सुन्दर शीलम्।
मणिमय मुकुट मनोहर मस्तक पीत बसन बनमालम्।
कुण्डल मण्डित गण्ड मण्डलं चन्दन चर्चितमालम्।
रुक्मिणी बिराजित बाम भाग मनु राग यागजवलभ्यम्।
सिंहासनासीन कमनीय सभा सुबिभावित सभ्यम्।
सुर सुरेन्द्र बैरंच्य बिरंचि सुरर्षि महर्षि समाजम्।
दीन दया बितरण सदानि वरपावित जनरघुराजम्॥१॥
सखि पश्य कोशल कान्त सुखद कुमारमति सुकुमारम्।
मैथिल निवास बिलास बिलसित मदनमनोऽपहारकम्।
मणि मंडपे सीतायुतं सुषमाभरं सीतावरम्।
सुविवाहकर्म्म विधान मतिकुर्वाणमद्भुत तारकम्।
मणिमुकुट पीताम्बर सुमध्यमुखारबिंदमनिन्दितम्।
मेदुर सुघन मस्तकदिवामणिमिवतडिद्गणवन्दितम्।
किञ्चित्कटाक्ष विकाश वीक्षित जानकी सुषमामुखम्।
गुरुजन निकट लज्जावशं गतमधोभावितशशिमुखम्।
जनकात्मजातिर्प्पितदृष्टि कंकण कलितकर धृतचन्दनम्।
रघुराज राजसमाज शोभित सानुजं रघुनन्दनम्॥२॥
सखिलखन चलो नृपकुवँर भलो
मिथिला पति सदन लिया बनरो॥