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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४२१

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कविता-कौमुदी
 

बूझती कछूक बैन। एहो ब्रजराज मेरे प्रेम धन लूटिबे को
बीरा खाइ आए कितै आपके अनोखे नैन॥३॥

कारी नभ कारी निसि कारियै डरारी घटा झुकन बहत
पौन आनँद को कन्दरी। द्विजदेव साँवरी सलोनी सजी
स्याम जू पै कीन्हो अभिसार लखि पावस अनन्द री। नागरी
गुनागरी सु कैसे डरै रेनि डर जाके संग सोहैं ये सहायक
अमन्द री। बाहन मनोरथ उमाहैं संगवारी सखी मैन मद
सुभट मसाल मुख चंद री॥४॥

काहू काहू भाँति राति लागी ती पलक तहाँ सपने में
आनि केलि रीति उन ठानी री। आप दुरे जाय मेरे नैननि
मुदाय कछु हौंहूँ बजमारी ढूँढ़िबे को अकुलानी री। एरी
मेरी आली या निराली करता की गति "द्विजदेव" नेकऊ
न परति पिछानी री। जौलों उठि आपनो पथिक पिय ढूँ ढौं
तौलौं हाय, इन आँखिन ते नीदई हेरानी री॥५॥

घहरि घहरि घन सघन चहुँधा घेरि छहरि छहरि विष बूँद
बरसावै ना। द्विजदेव की सों अब चूक मत दावँ अरे
पातकी पपीहा तू पिया की धुनि गावै ना। फेरि ऐसो औसर
न ऐहैं तेरे हाथ परे मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना।
हौं तो बिन प्रान प्रान चहत तज्योई अब कत नभ बन्द तू
अकास चढ़ि धावै ना॥६॥

बोलि हारे कोकिल बुलाय हारे केकी गन सिखैं हारीसखी
सब जुगत नई नई। द्विजदेव की सों लाज बैरिन कुसंग इन
अंगिनिहीं आपने अनीती इतनी ठई। हाय इन कुंजन ते पलटि
पधारे स्याम देखन न पाई वह सूरति सुधामई। आवन समैं
में दुःख दाइनि भई री लाज चलन समैं में चल पलन
दगा दई॥७॥