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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४२७

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कविता-कौमुदी
 

रूखन तर सुनि अन्न परयो है शुककोटरतें यह जु गिरयो है।
कहूँ घरी चिक्कन सिल दीसें इंगुदिफल जिनपै मुनि पीसें॥
रहे हरिन हिलि ये मनुषन तें नैन न चौंकत बोल सुनन तें।
सोहति रेख नदी तट वाटा बनी उपकिजल बल्कलपाटा॥
पवन झकोरति है जल कूला बिटपै कियेजिन उजलमूला।
नव पल्लव दीखत धुँधराये होम धुआँ जिन ऊपर छाये॥
उपवन अग्र भूमि के माहीँ कटि के दाभ रहे जहँ नाहिं।
चरतफिरत निधरक मृगछौना जिनके मन शंका नेकौ ना॥

अधर रुचिर पल्लव नये भुज कोमल जिमि डार।
अंगन में यौवन सुभग लसत कुसुम उनहार॥

तो मन की जानति नहीं अहो मीत बेपीर।
पै मो मन को करत नित मनमथ अधिक अधीर॥

भानु मन्द कर देत केवल गध कमोदिनिहिं।
पै शशि मंडल स्वेत होत प्रात के दरस तें॥

कहु दाभनतें मुख जाको छिद्यो जब तू दुहिता लखिपावत ही।
अपने करतें तिन घावन पै तुहीं तेल हिँगोट लगायत ही॥
जिहि पालनके हित धान समा नित मूठहिँ मूठ खबावत ही।
मृगछौना सो क्यों पग तेरे तजैजिहि पूतलौं लाड़ लड़ावत ही।

प्रजा काजे राजा नित सुकृति पै उद्यत रहैं।
बड़े वेद ज्ञानी हित सहित पूजें सरसुती॥