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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४३४

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लछिराम
३७९
 

मिलि नौगुना नछत्रन सौँ सौगुना ह्वै सहसगुनो भी छीर
सागर तरङ्ग मैं॥१॥
रावन बान महाबली और अदेव औ देवनहूँ दृग जोरयो।
तीनहूँ लोकन के भट भूप उठाय थके सबको बल छोरयो॥
घोर कठोर चितै सहजै लछिराम अमी जस दीपन घोरयो।
रामकुमार सरोज से हाथन सों गहिशंभु सरासन तोरयो॥२॥

भरम गंवाथै झरबेरी संग नीचन ते कंटकित बेल केत-
कीन पै गिरत है। परिहरि मालती सु माधवी सभासदनि
अधम अरूसन के अंग अभिरत है॥ लछिराम सोभा सरवर
में बिलास हेरि मूरख मलिन्द मन पल ना थिरत है। राम
चन्द्र चारु चरनाम्बुज बिसारि देश बन वन बेलिन बबूर में
फिरत है॥३॥

सजल रहत आप औरन को देत ताप बदलत रूप और
बसन बरेजे मैं। तापर मयूरन के झुंड मतवाले साले मदन
मरोरैं महा झरनि मरेजे मैं॥ कवि लछिराम रंग साँवरा
सनेही पाय अरज न भानै हिय हरष हरेजे मैं। गरजि
गरजि बिरहीन के बिदारें उर दरद न आवै धरे दामिनी
करेजे में॥४॥

बदल्यो बसन सो जगत बद‌लोई करै आरस में होत
ऐसो यामे कहा छल है। छाप है हरा की कै छपाए हौ हरा
को छाती भीतर झगा के छाई छवि झलाझल है॥ लछिराम
हौहूँ धाय रचिहौं बनक ऐसो आँखिन खवाये पान जात
क्यों अमल है। परम सुजान मनरंजन हमारे कहा अंजन
अधर में लगाये कौन फल है॥५॥