सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८४
कविता-कौमुदी
 

जयचंद चुगुल को चतुरभुज भारी मौज कीबे को॥ कहै अव
सेरी मसखरन को मग जैसे चलै विपरीत धिरकार ऐसे
जोबे को। सूम के रहत दुइ बातन की तंगी एक ईश्वर
निमित्त औ कवीश्वर को दीबे को॥१३॥

जगत के कारन करन चारौं वेदन के कमल में बसे वे
सुजान ज्ञान धरि कै। पोखन अवनि दुःख सोखन तिलोकन
के समुद्र में जाय सोये सेज सेल करि कै॥ मदन जरायो
औ सँहारयो दृष्टि ही सों सृष्टि बसे हैं पहार वेऊ भाजि हर-
बरि कै। विधि हरि हर बढ़ इतनें न कोऊ तेऊ खाट पै न
सोवैं खटमलन सोँ डरि कै॥१४॥

जानै राग रागिनी कवित्त रस दोहा छंद जप तप तेग
त्याग एक सी गतन का। महबूब उरझि न देखि सके मित्रन
की चित्त हर भाँति मैं रिझैया नुकतन का॥ जासे जो कबूलै
सो न भूलैं, भूलैं माफ़ करै साफ़ दिल आकिल लिखैया
हरफन का। नेकी से न न्यारा रहै बदी से किनारा गहै ऐसा
मिलै प्यारा तो गुजारा चलै मन का॥१५॥

कूर भये कुँवर मजूर भये मालदार सूर भये गुपत
असूर भये जबरे। दाता भये कृपन अदाता कहैं दाता हम
धनी भये निधन निधन भये गबरे॥ साँचन की बात ना
पत्यात कोऊ जग माँझ राज दरबारन बुलैये लोग लबरे।
भनत प्रवीन अब छीन भई हिम्मत सो कलियुग अदलि बदलि
डारे सिगरे॥१६॥

बारी और खँगार नाऊ धीमर कुम्हार काछी खटिक
दसौंधी ये हुजूर को सुहात हैं। कोल गोंड़ गूजर अहीर
तेली नीच सबै पास के रहे ते कहा ऊँचे भये जात हैं॥ बुद्धि-
सेन राजनि के निकट हमेस बसैं कूकर बिलार कहा गुण