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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४४४

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कौमुदी-कुञ्ज
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बार सेत हैं। कलि ठकुराई में विराग की बड़ाई करैं माई
माई करिकै लुगाई करि लेत हैं॥३४॥

जोरपरे जोर जात भर परे भूमि जात झूमि जात योबन
अतंग रंगरस है। कहैं हेमनाथ सुख सम्पति विपति जात
जात दुःखदारिद समूह रसबस है॥ गढ़ गिरिजात गरुआई
औ गरव जात जात सुख साहिबी समूह सरबत है। बाग
कटि जात कुवाँ ताल पटिजात नद्दीनद घटि जात पै न जात
जग जस है॥३५॥

पौर के किवार देत घरे सबै गारि देत साधुन को दोष
देत प्रीति ना चलत हैं। माँगने को ज्वाब देत बात कहे रोय
देत लेत देत भाँज देत ऐसे निबहत हैं। बागे हू के बंद देत
बारन की गाँठ देत परदन की काँछ देत काम में रहत है।
एतेपै सबैई कहैं लाला कछू देत नाहीं लाला जू तो आठोयाम
देतई रहत हैं॥३६॥

अगन बचाये शुभ चारो गन्न नाये अरु उक्ति उपजाय के
बिसारे नाम हरि का। लोभ के अज्ञान में सयान सब भूलि
गये कीबे परे ऐसई अधम ऐसे अरि का। कहैं कबि लोग
हम दान की कहाँ लौं कहौं माँगे से न दियो जाय जासों द्वैक
खरिका। सूमके कबित्त करि मन में गलानि होत परै पछिताय
वो छिनारि कैसो लरिका॥३७॥

दाता घर होती तौ क़दर तेरी जानी जाती आई है भले
घर बधाई बजवावरी। खाने तहखानन में आनि के बसेरो
लेहु होहु ना उदास चित चौगुनो बढ़ावरी॥ खैहौं ना खबैहौं
मरि जैहौं तौ सिखाय जैहौं यहि पूत नातिन को आपनो सुभा
चरी। दमरी न दैहौं कबौ जाने में भिखारिन को सूम कहे
सम्पति सों बैठी गीत गावरी॥३८॥