सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कौमुदी-कुञ्ज
३९३
 

चोथते चकोर चहुँआर जानि चंदमुखी जौ न होती
डरनि दसन दुति दम्पा की। लीलि जाते बरही बिलोकि
बेनी बनिता की जौ न होतो गूथनि कुसुम सर कम्पा की।
"पूखी" कवि कहै ढिग भौंहैं ना धनुष होती कीर कैसे
छोड़ते अधर बिम्ब झम्पा की। दाख कैसो झौंरा झलकति
जोति जोवन की चारि जाते भौंरा जो न होती रंग चम्पा
की॥५२॥

सोये लोग घर के बगर के केवार खोलि जानि मन माहिँ
निज गई जुग जामिनी। चुप चाप चोरा चोरी चौंकत चकित
चली पीतम के पास चित चाह भरी भामिनी पहुँची संकेत
के निकेत "संभु" सोभा देत ऐसी बन बोधिन विराजि रही
कामिनी। चामीकर चोर जान्यो चंपलता भौंर जान्यो
चन्द्रमा चकोर जान्यो मोर जान्यो दामिनी॥५३॥

तन पर भार तीन तन पर भार तीन तन पर भारतीन
तन पर भार है। पूजैं देवदार तीन पूजैं देवदार तीन पूजैं
देवदार तीन पूजैं देवदार है। नीलकंठ दारुन दलेल खाँ
तिहारी धाक नाकतीँ न द्वार ते वै नाकतीं पहार हैं। आँधरे
न कर गहें बहिरे न सँग रहे बार छूटे बार छूटे बार छूटे बार
हैं॥५४॥

सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी तुम दस्त ही
बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं। देवपूजा ठानी मैं निवाज
हू भुलानी तजे कलमा कुरान साड़े गुनन गहूँगी मैं॥
स्यामला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिये तेरे नेह
दाग मैं निदाग तो दहूँगी मैं। नन्द के कुमार कुरबान
ताँड़ी सुरत पें ताँड़ नाल प्यारे हिन्दुबानी हो रहूँगी मैं॥५५॥
कोऊ कहै है कलंक कोऊ कहै सिंधु पंक कोऊ कहै छाया