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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४४७

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कविता-कौमुदी
 

भयो। कौन कौन बातें तेरी कहैं एक आनन तें नाम चतुरा-
नन पै चूकतै चलो गयो॥४७॥

बार बार बैल को निपट ऊँचो नाद सुनि हुँकरत बाघ
बिरझानो रस रेला में। "भूधर" भनत ताकी बास पाइ सोर
करि कुत्ता कोतवाल को बगानो बगमेला में॥ फुंकरत मूषक
को दूषक भुजंग तासों जंग करिवे को झुक्यो मोर हद हेला
में। आपस में पारषद कहत पुकारि कछु रारि सी मची है
त्रिपुरारि के तबेला में॥४८॥

कंज वन मानि "मून" हंस गन आइ फिरे गंध बन
भृंग भीर भंग करि डारे तैं। पाके फल जानि सुक पुंज
पछिताने आइ पाइ कै बसंत बात वृथा पात डारे तैं। दूरि तें
बिलोकि अरुनाई अति फूलन को अमिष अकार गोध वायस
बिडारे तैं। एरे तरु सेमर के सिफत तिहारी कहा आस दिये
पच्छिन निरास करि डारे तैं॥४१॥

समै को न जानै सीख काहू की न मानै रारि कठिन को
ठानै सो अजानै भई जाति है। पीछे पछितैहै घात ऐसी नहिँ
पैहै टेक तेरी रहि जैहै कहा टेढ़ी भई जाति है॥ "संगम" मनावै
तोहिँ हित की सिखावै सीख जा बिन न भावै भौन ताहीं
सों रिसाति है। मोसों अठिलाति बिन काम को हठाति
प्यारी तू तो इतराति उतराति बीती जाति है॥५०॥

काके गये बसन पलटि आये बसन सु मेरो कछु बसन
रसन उर लागे हौ। भौंहैं तिरछी हैं कवि सुन्दर सुजान
सोहैं कछु अलसौहैं गो हैं जाके रस पागे हो॥ परसौं मैं
पाँयहुतें परसों पैं पाय गहि परसौंये पाय निसि जाके अनुरागे
है। कौन बनिता के हौ जू कौन बनिता के हौ सु कौन बनिता
की बनिता के संग जागे हौ॥५१॥