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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४५०

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कौमुदी-कुञ्ज
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प्रवीन कहै धर्म के धुरीन ऐसे मन में न माख्यो पीन राख्यो
प्रन तात को। मात कहैं, कोमल कुमार सुकुमार मेरे छौना
कहूँ सोवत बिछौना करि पात को॥६०॥

चन्द्रिका चकोर देखे निसि दिन करै लेखे चंद बिन दिन
छिन लागत अँध्यारी है। "आलम" सुकवि कहै अलि
फूल हेत गहै काँटे सी कटीली वेलि ऐसी प्रीति प्यारी है।
कारी कान्ह कहुत गँवार ऐसी लागत है मेरे वाकी स्यामताई
अति ही उज्यारी है। मन की अँटक तहाँ रूप को विचार
कैसो रीझिवे को पैड़ों और बूझ कछु न्यारी है॥६१॥

आजु हौं गई ती संभु न्योते नन्दगाँव तहाँ साँसति परी
है रूपवती बनितान की। घेरि लियौ तियनि तमासो करि
मोहिं लखैं गहि गहि गुलुफ लुनाई तरवान की॥ एकै कल
बोलि बोलि औरन देखाबै रीझि रीझि कोमलाई औ ललाई
मेरे पानकी। घूँघट उघारि एकै मुख देखि देखि रहैं एकै लगी
नापन बड़ाई अँखियान की॥६२॥

नट को न धाम न नपुंसक को काम नाहिं ऋणी को
अराम वाम वेश्या ना सहेलरी। ज्वारी को न सोच मासहारी
को न दया होत कामी को न नातो गोत छाया ना सहेलरी॥
देवीदास वसुधा में बनिक न सुना साधु कूकर को धीरज न
माया है सहेलरी। चोर को न यार बटमार को न प्रीति होत
लाबर न मीत होत सौत न सहेलरी॥६३॥

जैसी तेरी कटि है तू तैसी मान करि प्यारी जैसी गति
तैसी मति हिअ तें बिसारिये। जैसी तेरी भौंह तैसे पंथ पै न
दीजे पाँव जैसे नैन तैसियै बड़ाई उर धारिये। जैसे तेरे ओंठ
तैसे नैन कीजिये न जैसे कुच तैसे बैन नाहिँ मुखतें उचारिये।