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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४५१

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कविता-कौमुदी
 

एरी पिक बैनी सुन, प्यारे मन मोहन सों जैसी तेरी बेनी
तैसी प्रीति बिसतारिये॥६४॥


 

सवैया

फूलन दे अब टेसू कदम्बन अम्बन भौरन छावन दे री।
री मधुमत्त मधूपन पुंजन कुंजन सोर मचावन दे री।
क्यों सहि है सुकुमारि "किशोर" अरी कलकोकिल गावन देरी।
आवत ही बनि है घर कंतहि बीर बसंतहि आवन दे री।

कानन लौं अँखियाँ ये तुम्हारी हथेरी हमारी कहाँलगिफैलिहै।
मूँदें तऊ तुम देखतिं है। यह कोरै तिहारी कहाँ धौं सकेलिहैं।
कान्हर हू कौ सुभाव यहै उनको हम हाथन ही पर मेलि हैं।
राधे जू मानो भलो कि बुरो अँखमूदनोसाथतिहारे न खेलिहैं।

अंबुज कंज से सोहत हैं अरु कंचन कुंभ थपे से घये हैं।
बारे खरे गदकारे महा बटपारे लसे अरु मैन छपे हैं।
ऊँचे उजागर नागर हैं अरु पीय के चित्त के मित्त भये हैं।
हैं तो नये कुच ये सजनी पर जौलौं नए नहिँ तौ लौं नये हैं।

खाय कै पान विदोरत ओंठ हैं बैठि सभा में बने अलीला।
धोती किनारी की सारी सी ओढ़त पेट बढ़ायकियो जसथैला।
"वंशगोपाल" बखानत है सुनो भूप कहाय बने फिर छैला।
सान करैं बड़ी साहिबी की पर दान में देत न एक अधेला।

होत ही प्रात जो घात करै नित पार परोसिन सों कलगाड़ी।
हाथ नचावति मूड़ खुजावति पौंरि खड़ी रिस कोटिक बाढ़ी।