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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४५४

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कौमुदी-कुञ्ज
३९९
 

नेकसी कंकरी जाके परै वह पीर के मारे सुधीर धरैना।
कैसे परे कल ऐरी भटू जब आँखि में आँखि परै निकरै ना।

१६

पेट पिराय तौ पीठहिँ टोवत पीठ पिराय तौ पायें निहारैं।
दै पुरिया पहले विष की पुनि पीछे मरे पर रोग बिचारैं।
बीस रुपैया करें कर फ़ीस न देत जवाब न त्यागत द्वारैं।
भाखें "प्रधान" ये वैद्य कसाई ह्वै दैव न मारें तो आपही मारैं।

१७

सूल सुजाक छई लकवा ज्वर पीनस पील को घाव धनेरे।
और जलंदर हू परमेह कहै कवि "राम" कहाँ लगि हेरे।
जाके बिलोकत ही ततकाल चहूँ दिसि तें दुःख आवत घेरे।
जापै दया करि हाथ गहैं तिहि माथ गहैं जमराज सबेरे।

१८

साल छः सात की दाल दराय कै साधु कह्यो यह लेहु नई है।
फूंक दई लकड़ी बहुतेरिक साँझ ते आधिक रात लई है।
खाय लियो अकुताय कै काचही चाकरी चूल्हे निहारि गई है।
खोय दियो मुजरा दरबार को दाल दधीच की हाड़ भई है।

१९

घोड़ गिरयो घर बाहरही महा राज कलू उठवावन पाऊँ।
ऐंड़ो परो बिच पैंडोई माँझ चलै पग एक ना कैसे चलाऊँ।
होय कहाँरन को जुपै आयसु डोली चढ़ाय यहाँ तक लाऊँ।
जीन धरौं कि धरौं तुलसी मुख देउँ लगाम कि राम कहाऊँ।

२०

अर्थ है मूल भली तुक डार सु अच्छर पत्र को देखिकै जीजै।
छंद है फूल नवोरस हैं फल दान के बारिसों सौंचिवो कीजै।