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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४५९

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कविता-कौमुदी
 

मुच्छ नाहिँ वे पुच्छ सम कवि भरमी उर आनिये।
नहिँ वचन लाज नहिँ दान गति तिहि मुख मुच्छ न जानिये॥

तिमिरलग लई मोल चली बाबर के हलके।
रही हुमाऊँ साथ गई अकबर के बलके।
जहाँगीर जस लियो पीठ को भार मिटायो।
साहजहाँ करि न्याव ताहि को माँड़ चटायो।
बल रहित भई पौरुष थक्यो, भगी फिरत बन स्यार डर।
औरङ्गजेब करिनी सोई लै दीन्हीं कविराज कर।

मरै बैल गरियार मरै वह कट्टर टटू।
मरै हठीली नारि मरै वह पुरुष निखट्टू।
सेवक भरे सु तौन जौन कछु समै न सुज्झै।
स्वामी मरै जु कौन जौन सेवा नहिं बुज्झै।
यजमान सूम मरि जाय तौ काहि सुमिरि दुःख रोइये।
कवि गड्ड कहै मरि जाय सो जाहि सुने सुख सोइये।

शशि कलक रावन विरोध हनुमत्त सो बनचर।
कामधेनु ते पशू जाय चिंतामनि पत्थर।
अति रूपा तिय बाँझ गुनी को निरधन कहिये।
अति समुद्र सो खार कमल बिच कंटक लहिये।
जाये जु व्यास खेवट्टिनी दुर्वासा आसन ढिग्यो।
कवि गीध कहै सुनु रे गुनी कोउ न कृष्ण निर्मल गढ्यो।

हंसहिँ गज चढ़ि चल्यो करी पर सिंह बिरज्जै।
सिंहहिं सागर धरयो सिंधु पर गिरि द्वै सज्जै॥