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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४६०

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कौमुदी-कुञ्ज
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गिरिधर पर इक कमल कमल पर कोयल बोले।
कोयल पर इक कीर कीर मृगह डोलै।
ता ऊपर शिशु नाग के निसु दिन फनिय धरे रहैं।
कवि गड्डू कहै गुनि जनन सों हंस भार केतो सहैं॥

दोहे

प्रीतम नहीं बजार में वहै बजार उजार।
प्रीतम मिले उजार में वहै उजार बजार॥१॥
कहा करौं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छाँह।
"अहमद" ढाँक सुहावने जहँ पीतम गलबाँह॥२॥
गमन समै पटुका गह्यों छाड़न कह्यों सुजान।
प्रान पियारे प्रथम ही पटुका तजौं कि प्रान॥३॥
सरस कविन के हृदय को बेधत है सो कौन।
असमझवार सराहिबो समझवार को मौन॥४॥
पिता नीर परसै नहीँ दूर रहै रवि यार।
ता अम्बुज में मूढ़ अलि उरझि परै अविचार॥५॥
"व्यास" बड़ाई जगत की कूकर की पहिँचान।
प्यार करे मुख चाटई बैर करे तन हानि॥६॥
"व्यास" कनक औ कामिनी ये हैं करुई बेलि।
बैरी मारै दाँव दै ये मारैं हँसि खेला॥७॥
तन ताजी असवार मन नयन पियादे साथ।
योबन चलो शिकार को बिरह बाज लै हाथ॥८॥
तन कंचन को महल है तामे राजा प्रान।
नयन झरोखा पलक चिक देखैं सकल जहान॥९॥
डीठि डोरि सों मन कलस काम कुआँ में डारि।
ये नयना तुव नागरी भरत प्रेम रस धारि॥१०॥