सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कौमुदी-कुञ्ज
४०७
 

दन्तकथा वा दंत की और कही नहिंँ जात।
फूलझरी सी छुटत जब हँसिहँसि बोलत बात॥२४॥
लाल माँग पटिया नहीं मार जगत को मार।
असित फरी पै लै घरी रकत भरी तरकार॥२५॥

बरवै

अधम उधारन नमवा सुनि कर तोर।
अधम काम की बटियाँ गहि मन मोर॥१॥
मन बच कायक निशि दिन अधमी काज।
करत करत मन भरिगा हो महराज॥२॥
बिलगराम का बासी मीर जलील।
तुम्हरि सरन गहि गाहे ये निधिशील॥३॥
बालमु हेरि हियरवा उपजै लाज।
पाख मास मो जानि न परिहै गाज॥४॥
पिय से अस मन मिलयूँ जस पय पानि।
हंसिनि भई सवतिया लै बिलगानि॥५॥
पीतम तुम कच लोहिया हम गजबेलि।
सारस कै अस जोरिया फिरहुँ अकेलि॥६॥
पात पात करि ढूँढ्यो सब बन बीनि।
किहि बन बस मो बालम परयो न चीनी॥७॥
बालम सुरति बिसरिगै कहत सँदेस।
एकहुँ पथिक न बहुरा कस वह देस॥८॥
पात पात करि लुटिसि विपिन समाज।
राजनीति यह कसिकसि कस ऋतुराज॥९॥
भावै चन्दन चन्दन सुरभि समीर।
भावै सेज सुहावनि बालम तीर॥१०॥