रजय जाकी चाल सोँ दिल न दुखाया जाय।
यहाँ खलक खिजमति करै उतहैं खुशी खुदाय॥११॥
वह वृंदावन सुख सदन कुंज कदम की छाँहिँ।
कनकमयी यह द्वारिका ताकी रजसम नाहिँ॥१२॥
जस जाग्यो सब जगत में भयो अजीरन तोय।
अपजस की गोली दऊँ ततकाले सुधि होय॥१३॥
तथके नरपति वे रहे रीझें तो कछु देयँ।
अबके नरपति ये भये रीझें औ लिख लेय॥१४॥
जो मेढ़ा पीछे हटै केहरिया छपकंत।
जो दुजन हँसि के मिलै तबै बचैयो कंत॥१५॥
दगाबाज की प्रीति यों बोलत ही मुसकात
जैसे मेंहदी पात में लाली लखी न जात॥१६॥
खेती बारी बीनती औ घोड़े को तंग।
अपने हाथ सँवारिये लाख होय कोउ संग॥१७॥
तन तलवारों तिलछियो तिल तिल ऊपर सीव।
आलाँ घावाँ ऊठसी मत कर साज नकीव॥१८॥
ना हँसकरके कर गहै ना रिस करके केस।
जैसे कंता घर रहे वैसे रहै विदेस॥१९॥
निकट रहे आदर घटै दूरि रहे दुःख होय।
सम्मन या संसार में प्रीति करौ जनि कोय॥२०॥
सम्मन चहु सुख देहको तौ छोड़ों ये चारि।
चोरी चुगुली जामिनी और पराई नारि॥२१॥
सम्मन मीठी बात सों होत सबै सुख पूर।
जेहि नहिँ सीखो बोलियो तेहि सीखो सब धूर॥२२॥
गोरे मुख पै तिल लसत मैं जान्यो यह हेत।
रूप खजाने को मनो हवसी चौकी देत॥२३॥
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कविता-कौमुदी