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पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/३१

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कविवचनसुधा।

सी सूरति सनेह की । सावन सुंहावनं को माक्न सखीन साथ तैसई सोहाई आई छटा घटा मेघ की ॥ ता समै बजाई कान्ह बंशी तान आई कान सुधि सी हेरानी हिये मैनवान बेह की । दूध की न दही की न माखन मही हू की न कुल की कही की न देह की न गेह की ॥ १५ ॥

सवैया।

होय पियूख पयोनिधि ते बिधु जीति प्रकाश अकंटक छावै । बोलनि हांस बिलासंनि खोलनि डोलनि सोम सिंगार बतावै ॥ गैध अनन्द लखे ब्रजचन्द यों आदर सोम अनूप महा वै । राधिका के मुख के सुखसिन्धु की सीकर ताको सरोज न पावै ।। अब यों मन आवत है सजनी उनसे सपनेहुँ न बौलिये री। अरु जो मिलने वै मिलें तो मिलें मन से गसगुंज न खोलिये री॥ हग देखन की कछु सौंह नहीं उन गोहन भूलि न डोलिये री। घनानंद जानि महा कपटी चित को न प्रयोजन फोलिये री॥

कवित्त ।

उधो सुनो ऊधम मचायो बर्षा ने हरि बिन हर्षाने ते बखाने केती माती है । भकती है भुजङ्ग मयावनी मयूर बोले ओलती अहू ते एक हू ते प्रान खाती है ॥ घोर धन टारि घहरात जो मुमाति जात कैसे के गुदरती राती उदारती छाती है। करन कटा सो विज्जुछटा की तडप देखि तरप अटा सी घटा घिसि घिसि जाती है ॥ १८॥