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पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/३४

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कविवचनसुधा।


चित कीन्हो कठोर कहा इतनो अस तोहिं नहीं यह चाहिबो है। कवि ठाकुर नेक नहीं दरसो कपटीन को काह सराहिको है। मम भावे तिहारे सोइ करिये हमैं नेह को नातो निबाहिबो है ॥ उचके कुच के कच के भर से लचके करिहां मतिमन्दहु मैं । अधरा मै मिठाई है ऐसी कछू वह तो मिसिरी में न कन्दहु मैं ।। मुख की छबि सो दविजात सरोज फिकाई सी धावत चन्दहु मैं । जो पै ऐस हूं राधे सो रूसत हैं तो सयान कहा नदनन्दहु मैं ॥

दोहा।

तु क्यों न मानत मुकतई तुम बिन हमैं न चैन ।

निसिबासर देखत रहत तऊ न मानत नैन ॥ ३२ ॥

सवैया।

सुनि नेहमरी बतियाँ हिय की मुख इन्दु सो वा मग फेरते तो। मन धारि दया प्रतिपालत जानि सुधानिधि वानि सों सेरते तो॥ गनपाल भ्रमी मग कुजन धीर बिचारि दयानिधि टेरते तो । कबहुं करि सूधे सरोज से नैन मया करि मो दिसि हेरते ती ॥ रूप अनूप दियो विधि तोहिं तो मान किये न सयान कहावै । और सुनो यह रूप जवाहिर भाग बड़े विरले कोऊ पावै ॥ ठाकुर सूम के जात न कोऊ उदार सुने सबही उठि धावै । दजिये ताहिं दिखाइ दया करि जो चलि दूर ते देखन आवै ॥

दोहा।

नीच निचाई जो तनै तो चित अधिक डरात । ज्यौं निकलंक मयंक लखि गर्ने लोग उतपात ॥ ३५ ॥