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कविवचनसुधा।

सवैया ।

सोहैं सहेलिन में सुकुमारि सवारे सिंगार सुमांति मली के । सामुहे आरसी में लाख रूप भये उर सीतल छैल छली के ॥ आंजिवे लोचन को लछिराम जू अंजन आंगुरी बीच लली के । चेटुआ भोर मलिन्द को यों चपक्यो मनो कोर गुलाबकली के।

सांझ ही सो रंगरावटी में मधुरे सुर मोदन गाय रही है सांवरे रावरे की मुसकानि कला काहे के ललचाय रही है ।। लालसा में लछिराम निहोरि अबै कर जोरि बुलाय रही है । बैजनी सारी के भीतर में पग-पैजनी प्यारी बजाय रही है ॥

कवित्त।

पैजनी झमक पायजेब की जमक रङ्ग जावको चमक महाधीरज हितै गई । लंक को लचनि रोमराजी की रचनि चारु चोली बिरचनि सो बियोगिनि वितै गई । कवि लाछिराम घालि धूघुट मदन चन्द मन्द मुसुकानि की मरोरनि हितै गई । सांकरी गली में डारि सांकरे सनेहन की सांकरे समर चारु चखन चितै गई ॥ ३८॥

सवैया।

चख चंचल चारु चुरावत चित्त कछू मुसकात श्री लाजत हैं। उठि प्रात समै बलदेव सखी पय्यक बिचित्र पै भ्रानत है ॥ जगजीवन राम सिया शुभ अङ्गन भूषण वेस विराजत हैं । अवनीतनया तन हेरि रहे सुख सों दोउ सामुहे राजत है ॥