घरी की धमक सुनि छाती अकुलाति है ॥ जनम जनम लगि मानि हौ असान तेरो कहै कवि कृष्ण प्रीति हिये न समाति है। येरे घरियार-दार टेरि कहौं बार बार मोगरी न मार मो गरी- बिनि की राति है ॥ ४९॥
अमित पुराण वेद शास्त्रन को बांचि बांचि सासन वुझाय करि नितही थका करें। द्विज बलदेव कहै बेदन को भेद लखि अमृतसी बानी सुनि कुपथ ढका करें ॥ श्रातन सों मा कछु गुप्तऊ न राखै मन चाखै शब्द सुन्दर सो नितही चका करै । कहत है ताको कछु जाने तामे याको नित भाषा बिन जाने सन्नि-पाती से बका करै ॥ ५० ॥
मोह की निसा में जान बासर त्रिनामें होत दिब्य तन छामें वैस नाहक बितावै तू । जैहै बीति जामै नेक पैहै न अरामैं ये न ऐहै तव काम वैजनाथ जिन्है ध्यावै लोम जड़ता में देह गेह बनिता में भूलि भ्रमत धरा में हठता में काह पावै चाहै शिवधामै अष्टयामैं सुख जामै छोड़ि झूठ धनधामैं राम- नामै क्यों न गावै तू ॥ ५१ ॥
बाल समै रवि भक्ष कियो तब तीनिहुँ लोक भयो अँधि-यारो । ताहि ते त्रास भयो जग में सोइ संकट काहु से जात न टारो॥ देवन आनि करी बिनती तब छाडि दियो रवि कष्ट निवारो। को नहिं जानत है जग में यह संकटमोचन नाम तिहारो।। ५२ ॥