पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/४

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कविवचनसुधा।

कैधौ गिरा हरमूल कैधौ शिवा शशिगार कैधौं भव बृज जाल सी। ऐसी बाल लाल कैधौं लाल लाल लाल कैधौ राधिका विसाल कधौ हरि-हियमाल सी ।। ९ ॥

चन्दन चरचि चारु मातिन को उर चारु चली आभचारु गति मायल मराल सी। केसरि रँग्या दूकुल हांसी में भरत फूल सौतिन करत सूल अली चन्द बाल सी ॥ गहगही चांदनी उठत महमही अङ्ग लहलही ललित लता है छत्रि जाल सी । बूंधुट उठाये चहुंओरन उनास होत जात शिवनाथ कैधौं मदन मसाल सी ॥ १० ॥

सवैया ।

बेली घनी घर के ढिग मैं अलबेली करै नित जाइ बिहारन । सासु औ नन्द सबै सुख देत हैं भूषित है उर हीर के हारन ।। कन्त न होत रुसन्त कबौं कविवंस भरो गृह दूध भँडारन । आजहि कोकिल कैरव बोलत प्यारीके पीरी परी केहि कारन ॥ देखुरी देख या ग्वालि गवारिन नैको नहीं थिरता गहती है । आनन्द सी रघुनाथ पगी पगी रङ्गन सी फिरते रहती है ॥ कान सों कान तरचोना सु छवै करि एसी कछू छविको गहती है । जोबन आइवे की महिमा अंखियां मनो कानन सों कहती है ।।

॥ दोहा ॥

कनकलता श्रीफलफरी, रही बिजनबन फूलि। ताहि तजत क्यों वावरे, सुअलि सांवरे भूलि ॥