सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५०
कविवचनसुधा।


न कछु दान सम्मान बिन नष्ट कुभोजन जासु दिन । यह कबित सु नर हरि उच्चरै कछु न जन्म हरिमाक्त बिन ।। नेकबख्त दिलपाक वही जो मर्द सेर नर । अव्वल बली खोदाय दियो बिसियार मुलुक जर ।। तुम खालिक दुर वेश हुकुम पाले सब आलम । दौलत वख्त बुलन्द जङ्ग दुश्मन पर जालम ॥ ऐशाह तुरा गोयद खलक कवि नरहरि गोयद अजचनी । अकबर बराबर पादशाह मन्दिगर न दीदम् दर दुनी ॥ ९ ॥ तदिन सत्य जनि जाइ जदिन कोउ याचक जच्चै । तदिन सत्य जनि जाइ जदिन पर घर मन रच्चै ॥ तदिन सत्य जनि जाइ जदिन कोउ शरणहि आवै । तदिन सत्य जनि जाइ जदिन अरि सन्मुख धावै जनि जाइ सत्य नरहरि कहै बरु बिधना प्राणनि हरै । गोरच्छ अकब्बर साह सुन सत्य सुमङ्गल ना टरै ॥ १० ॥

सवैया।

ऐसे बने रघुनाथ कहै हरि काम कला छबि के निधि गारे । झांकि झराखे सो आवत दोख खड़ी भई आनि के आपने द्वार ।। रझिी सरूप सौ भीनी सनेह यों बोली हरे रस आखर भारे । ठाढ हो तोसों कहौंगी कळू अरे ग्वाल बड़ी २ आँखिनवारे ।।

कवित्त ।

फूलन सो बाल की बनाय बेनी गुही लाल भाल दीनी