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पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/५२

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कविबचनसुधा।


बेंदी मृगमद को असित है । अङ्ग अङ्ग भूषण बनाय ब्रजभूषण जू बीरी निज कर ते खवाई करि हित है ॥ है कै रस बस जब दीवे को महाउर को सेनापति श्याम गह्यो चरण ललित है । चूमि हाथ लाल के लगाय रही आंखिन सों येहो प्राणप्यारे यह अति अनुचित हे ॥ १२ ॥

'सवैया ।:

मेरी वियोग-बिथा लिखिबे को गणश मिलें तो उन्हीं ते लिखाओं। व्यास के शिष्य कहां मिलै मोहिं जिन्है अपना विरतान्त सुनाओं। राम मिलैं तो प्रणाम करौं कवितोष बियोग-कथा सरसाओं। पै इक सांवरे मीत बिना यह काहि करेजो निकारि दिखाओं ॥

कबित्त।

चित्त को भ्रमा छबि देखें तहां जा3 चाह दूनी उपजावें इन ऐसी रीति डारी है। नीर झरि लावै तन हूक ना बुझावै चैन पलक न लावै नींद अनत सिधारी है ॥ कहिये कहा री नेक मानत न हारी हम अति मनहारी ये कुपन्थ पगधारी हैं । तन तें मिली रहत मन में न लावै नेक आखें ये हमारी कहिवेई को हमारी हैं ॥ १४ ॥

सुरंग रँगीले अरसीले सरसीले सर सरस नुकीले मटकीले कीले काम के । सरबर मीले दरसाले सरसीले नीले सुन्दर सु- सीले उनमीले आठौ याम के ॥ छाजत छबीले जसवन्त गर- बीले वेस लाजत लजीले जलजात अभिराम के । चोखे चटकीले झमकीले चमकीले चारु सोहत घतीले ये जतीले नैन बाम के ॥