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पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/५९

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कविवचनसुधा।

सुर-थानन तीरथ क्षेत्रन में झगरावल प्रोहित नांगे मिले ॥ कवि शंकर पास भले के बुरे बमैं फूल में कण्टक लागे मिले । हम लेन गये फल मीठे जहां तहां कूर बबूरहिं आगे मिले ।।

कवित्त ।

देखि लेती हग भरि हरि धरि धीर आली चौगुनो चवाव फेरि कूटती तो कूटती । करि लेती मन के मनोरथ प्रवीन चेनी प्रीति पथवारी फेरि टूटती तो टूटती ॥ आवतो हमारी गेल छैल ब्रजचन्द प्यारो धैर घर बाहर की ऊठती तो ऊठती । लाय लेती छतिया में बतियाँ कै चित्तचाहि फेरि कुल गोकुल ते छूटती तो छूटती ॥ ४४ ॥

लावति न अंजन मँगावति न मृगमद कालिंदी के तीर न तमाल तरे जाति है। हेरत न धन गिरि गहन बनक बेनी बांधे ही रहत नीली सारी ना सोहाति है ॥ गोकुल तिहारी यह पाती बाँचिहैगो कौन याहू में तो कारे अखरान ही की पाति है । जा दिन ते लखे वा गवांरि गूजरी सों कान्ह तादिन ते कारो रँग हेरे अनखाति है ॥ ४५ ॥

कारो जल यमुना को काल सों लगत आली जानियत फैलि रह्यो विष कारे नाग को। बैरिनि मई है कारी कोयल निगोड़ी तैसी तैसही भँवर कारो बासी बन बाग को ॥ भूषण मनत कारे कान्ह को बियोग हमैं सबै दुखदाई भयो कारे अनुराग को । कारो धन घेरि घरि मारो अब चाहत है ताहू पै मरोसो करै आली कारे काग को ।। ४६ ॥