पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/६७

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कविवचनसुधा ।

वह अलिफ इलाही एक है जी चहौ राम कहौ चहै। रब्ब कही। चही काबा श्री महजीद कहै। चहौ ठाकुर द्वाराधाम कहौ ॥ चहौ कहाँ कटोरा अमृत का चाहौ कौसल का नाम कहो तुम रामसहाय मिटाय दुई मनमस्त रहौ हरिनाम कहौ ॥ ४॥ वह अलिफ इलाही पाकजात आनन्द ब्रह्म अविनासी है। भरिपूर तुलासा नूर वही नहिं दूर सबन के पासी है ।। नहि ऊचा नीचा कम ज्यादा ज्यों का त्यों सब घट बासी हैं। तू रामसहाय न जाय कहीं वह काया काबा काशी है । बे-बरकत बारी ताला को सब कुदरत का सामान हुआ । अबगत सो आतप्त प्राबहवा परतच्छ जिमी अम्मान हुआ ।। मइ सूरति मूरति रङ्गं घने हरएक में नाम निशानं हुआ। पहिचानि ले रामसहाय उसे जग जिस्म हुआ वह जान हुआ ॥ ते-तरकस में ज्यों तीर भरे त्यों तन में स्वास सुमार कीजे। यह खाली छोडना खूब नही निज माम निसान को ताकि लीजे॥ इस दमही का सब दमदमा दम टूटे देह दीनार छीजे । तेहि रामसहाय उपाय यही दिल देग में दम को दम दीजे ॥ से-सेसवित्त सन्तोष सील साँचा सुभाव भरपूरों का । सिर बेचि के मरने को डरना यह खास खवास बेइश्क इवादत कमरना दिन भरना काम मजूरों का। खुश रहना रामसहाय सदां मजबूत मता मन्सूरों का ॥ ८ ॥ जीम-जाग जाग ऐ जी जाहिल बेहोश पड़ा क्यों सोता है । इस तन पिंजरे में आनि फँसा तू किस जङ्गल का तोता है ।।