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कविवचनसुधा ।

ज्ञान दोहावली दोहा।

माधो तारो दीन नर सुनो कुशल का देर ।

सब प्रभुता को पद गयो ढन्यो अरज पग नेर ॥ १ ॥

रन बन ब्याधि बिपत्तिमों बृथा डरै जनि कोय ।

जो रक्षक जननी-जठर सो हरि गयो न सोय ॥ २ ॥

मनुन विविध भेषन करत ब्याधि न छाड़त साथ ।

खग मृग बसत अरोग्य बन हरि अनाथ के नाथ ॥ ३॥

जो जाके बस में परै तासों कहा बसाय ।

ताको सुख दुख देत मों ईश्वर एक सहाय ॥ ४ ॥

बात बहत रवि तपत घन बरषत तरु फल हेतु ।

इच्छा ते ज्यहि ईश की करहु ताहिते हेतु ॥ ५ ॥

जाकी रक्षा जाहिविधि हरि तैसी मति देत ।

दै चपेट बड़ बालकहिं लघुहिं गोद सब लेत ॥ ६ ॥

हरिइच्छा कहुँ दोप गुन गुनो दोष कहुँ होय ।

अगिनिदाह जिमि सरपतहि जिमि जवास धन तोय ॥७॥

परत प्रतीति न ईश मों ऐमिहु गति लखि सूध ।

मलपूरित तन बीच सों जो बिलगावत दूध ॥ ८ ॥

स्वारथ अरु परमारथहुँ तनत न लागत लाज |

चोर होत हरि ओर उत इत निज करत अकाज ॥९॥

जेहिविधि जासु निबाह हरि दीन बन्धु तस कीन ।

जलचारन जलखग कियो इतर कुटिल करि दनि ॥ १० ॥

निज निज लायक लोकहित सकल कीन भगवान ।