पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/७७

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कविबचनसुधा ।

देखती हैं ए गली में अली न चली कछु मेरो कहा घरबार में॥ नाथ जू कैकै कलंक हमै तन मीनिहैं त्यों अँसुवान की धार येहो मुरारी सम्हारि के काम करो जनि छूटै संयोग बिहार में ॥

कुण्डलिया।

थोरी जीवन जगत में आय रह्यो कलिकाल । तामहँ दुष्ट दरिद्र यह दाहत दीनदयाल ।। दाहत दीनदयाल रात दिन सोचत बीते । सो कप्त सहै कलेस पाइकै सुरतरु मीतै ।। करि पुकार हरदत्त अहो सरणागति तोरी । विरद करो सम्भार नाथ ज्यहि होत न थोरी ॥ १८ ॥

झूलना।

आशक होना सहल नही मरने से मुशकिल मानोगे। पल पल पर जीना मरना है तिस को क्योंकर पहिचानोगे। चीज चमत्कारी न चल तहँ हाय हमेशै ठानोगे । श्रीयुगल अनन्य शरण आशक रस छानत २ छानोगे ॥ मुमकान चपल चितवनि अमोल मृदुबोल लोल चित चाहै । पीतबसन बनमाल लटक छवि जाल चाल अवगाहै ॥ चारुचिबुक बरबिन्दु इन्दु मनमोहन अकथ कथा है । श्रीयुगल अनन्य शरण कुंडल कल डोलनि हिया हरा है ।।

दोहा ।

नाम रटन निज नीचप्रण अगुण अधन सत्कार । श्रीयुगल अनन्य शरण किये पये प्रभु दीदार ॥ २१ ॥