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कविवचनसुधा।


कर्म्मगति।

कर्महेतु हरि तन दियो ताते कीजै काज।
दैव थापि आलस करै ताको होइ अकान॥३२॥
कैसो होय समर्थ कोउ बिनु उद्यम थकि जाय।
निकट असन बिनु कर चले कहु किमि सुख मों जाय॥३३॥
कीन्हें बिना उपाय कछु दैव कबहुँ नहिं देत।
जोति बीज बोवै नही किमि कर जामे खेत॥३४॥
कर्म करत फल होत है जो मन राखै धीर।
श्रम के खोदत कूप ज्यों थल मों प्रगटत नीर॥३५॥
झूठ होत जो कर्मफल यह विचारु मनमाहिं।
दुखी सुखी भल पोच सब एकरङ्ग कस नाहिं॥३६॥
आपु करै अपराध तो का पर सों बिरुझाहि।
जीमि कटै निज दन्त ते कोह करै कहु काहि॥३७॥

स्वभाव गति।

कैसो परै कुसङ्ग जो तजहि न सुजन सुभाय।
तीनि टेढ़ कोदण्ड ते तीर सधि गति जाय॥३८॥
सूध सूध ते सँग चलै साधु कुटिल ते नाहिं।
सदा वसहिं सर सर सँगै धनुष पड़त उड़ि जाहिं॥३९॥
सम रसाल तरु अरु सुजन खल बबूर इक बांट।
ताड़तहूं वै देहिं फल सेवतहूं वै काँट॥४०॥
वर अचूक सर सो हनै कहै न कोउ कटु बात।
यामें छन दुख होत है वामें नित अधिकात॥४१॥