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कविवचनसुधा।


अधन चहत शत धन उतो सहस सों लछि नृप सोय।
सो सुरेस सो विधि सो हरि सो हर तुषित न कोय॥४२॥
निज सुभाय छूटै नहीं कीन्हें कोटि उपाय।
स्वान पूंछ सीधी करै फेरि कुटिल ह्वै जाय॥४३॥
एक नखत दिन लगन कुल तिथि मों उपजे साच।
नहिं समान सब रूप गुण जिमि कर अङ्गुलि पांच॥४४॥
शिशिर दुःख दिन दूबरो सोइ ग्रीषम सरसात।
ताप करत चर अचर को बढ़े सबै इतरात॥४५॥
बड़ी निशा हिमि दुख करै सोइ ग्रीषम कृश होय।
ताप हरत है जगत को त्रिपति साधु सब कोय॥४६॥
बीना बानी नारि नर विद्या है हथियार।
पुरुष मिलै जैसो इन्है तैसी लहै असार॥४७॥
जौ न होय कछु बुद्धि तौ पढ़ब गुनब केहि काम।
पढो कीर मातहीन ज्यों लै टेरत निज नाम॥४८॥
आग भाग ते ऊख मों पोर पोर रस जोर।
सुजनन प्रीती नीचें मों गनब नीच ते ओर॥४९॥
को समरथ फिरि थिर करै प्रेम अनादर भङ्ग।
गजमुक्ता फूटो जुरे काह लाह के रङ्ग॥५०॥
सुजन सोन अति अवचटे टूटहिं जुरहिं तुरन्त।
खल माटी के घट सहन फूटहिं जुरहिं न अन्त॥५१॥
खल फल पाके दारुणी भीतर केर मलीन।
उपर खार अन्तर मधुर सुजन पनश कहि दीन॥५२॥