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कविवचनसुधा


शान्ति-वचन सुनि कुपित जन कोप करहिं अधिकाय।
अति तोपित घृत तेल ज्यों बारि परत जारिजाय॥६३॥
सुजन-बचन अरु गज-दशन निकरि फेरि पैठे न।
बार बार उगिलत गिलत कमठ कण्ठ शठ बैन॥६४॥
देवा मेवा सुजन-जन सेवा से फल देत।
लखत कन्द तरु मन्द नरु इन्है खने कछु लेत॥६५॥
अगिनि-दाह अति दुख नहीं नहिं दुख अति घनघाय।
गुंजा के सँग तोलिबो सो दुख सहो न जाय॥६६॥
काज सरे नहिं और को काह करै बलशील।
बिलगावत शिकता सिता मिले पिपील न पील॥६७॥
काह करें बहुरूप गुण जासों मन नहिं लीन।
राखै मधु घृत दूध मों जल बिनु मनि मलीन॥६८॥
देश मोह रुन अलस भय तिय सेवा सन्तोष।
सहनहि मिलैं महत्व जो ये न होहिं षट दोष॥६९॥
गुण अवगुण तस लखि परै जस जासो मन लीन।
कमल मुदित रवि तापहूं निराखि सुधाकर दीन॥७०॥
पुत्र चीन्हिये बृद्धई दुरदिन परे कलित्र।
काज परे सब को लखिय विपति चीन्हिये मित्र॥७१॥
एक एक अक्षर पढ़ै एक एक तजि देय।
आदिहि दोहा नाम कुल देश ग्राम लखि लेय॥७२॥
सम्बत् एक सहस सहित नौसै तीनि समेत।
रची ज्ञानदोहावली चैत पंचमी श्वेत॥७३॥

इति ज्ञानदोहावली समाप्ता।