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महादेव जी का दान वर्णन

कवित्त

कांपि उठ्यो आप निधि, तपनहि ताप चढी,
सीरी ये शरीर गति भई रजनीश की।
अजहूँ न ऊँचौ चाहै अनल मलिन मुख,
लागि रही लाज मुख मानो मन बीस की।
छबि सो छबीली, लक्षि छाती मे छपाई हरि,
छूट गई दानि गति कोटिहू तैतीस की।
'केशौदास' तेही काल कारोई ह्वै आयो काल,
सुनत श्रवण बकसीस एक ईश की॥६७॥

'केशवदास' कहते है कि श्री शकर जी के एक दान का समाचार कानो से सुनते ही समुद्र कॉप उठा, ( क्योकि उसे भय हुआ कि मै रत्ना कर ठहरा, मेरे सभी रत्न दान मे न दे डाले )। सूर्य को बुखार चढ आया। उन्हें अपने घोडे का भय लगा कि दान मे न दे दें)। चन्द्रमा का शरीर ठडा पड गया (कि कहीं मेरा असृत न दे डाले)। मलिन मुख वाले अग्नि तो अब भी (मारे भय के) अपना सिर ऊँचा नहीं करते और उनके मुख मे जो कालिख लगी रहती है वह मानो बीसोमन लज्जा की कारिख है और हरि ( विष्णु) ने सुन्दरी लक्ष्मी जी को छाती मे छिपा लिया (कि कहीं इन्हे भी न दे डालें) तथा वे तेतीसो करोड देवताओ को दानशीलता भूल गई और काल भी उसी समय काला पड गया।

विधि का दान वर्णन

कवित्त

आशीविष, राकसन, दैयतन दै पताल,
सुरन, नरन, दियो दिवि, भू, निकेतु है।
थिर चर जीवन को दीन्ही वृत्ति 'केशौदास'
दीवे कहँ और कहो कोऊ कहा हेतु है।