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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१६१

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बढे है कि कहते ही बनता है। आकाश में चन्द्रमा पीछे निकलता है, उनके दृश्यो का प्रेम सम्द्र पहले ही उमडने लगता है।

४-विरोध

दोहा

'केशवदास' विरोधमय,। रचियत वचन विचारि।
तासों कहत विरोध सब, कविकुल सुबुधिविचारि॥१९॥

'केशवदास' कहते है कि इसमे विचार पूर्वक विरोधमय रचना की जाती है इसी से कवि लोगो ने अपनी बुद्धि को सुधार कर अर्थात् खूब सोच-समझकर इसका नाम 'विरोध' रखा है।

उदाहरण

कवित्त

सोभत सुबास हास सुधा सों, सुधारयो विधि,
विष को निवारा जैसा तैयो मोहकारी है॥
'केशवदास' पावन परम हसगति तेरी,
पर होय हरन प्रकृति कौन पारी है।
वारक बिलोकि बलबीर से बलीन कहँ,
करत बरहि वश, ऐसी वैसावारी है।
ऐसी मेरी सखी तेरी कैसे कै प्रतीत कीजै,
कृष्णानुसारी दृग करणानुसारी है॥२०॥

वे सखी! तेरा हास्य सुगन्धित है, मानो अमृत मे साना हुआ है परन्तु विषैले पदार्थों की भॉति मूर्छा उत्पन्न करने वाला है। 'केशवदास' कहते है परम पवित्र हम जैसी तेरी चाल है, परन्तु दूसरो के हृदयो को हरण करने का स्वभाव तेरा किसने बनाया है? तू एक बार में ही कृष्ण को देखते ही हठपूर्वक वश मे कर लेती है, यद्यपि तेरी इतनी छोटी वयस है। हे सखी! तेरा विश्वास कैसे किया जाय? तेरे करणा-नुसारी (कानो तक फैले हुए) नेत्र कृष्णानुसारी (कृष्ण के अनुगामी) है।