पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२०

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"मैं सुरतरु ( पारिजात वृक्ष ) था, उसी प्रकार इसके घर में सुरतरु ( स्वरो का वृक्ष ) है। ( ऐसी वीणा है, जिसमें सातो स्वर निकलते हैं )। जिस प्रकार उस पर इन्द्रजीत ( श्रीकृष्ण, जो इन्द्र को जीत कर पारिजात लाये थे ) अनुरक्त थे, उसी प्रकार इस प्रवीणराय से इन्द्रजीतसिंह स्नेह बद्ध हैं। नवों रसो और नवों प्रकार की भक्ति के सहित नवरगराय वेश्या ऐसी सुशोभित होती थी कि उसे देखकर नारियाँ, किन्नरियाँ, असुर तथा देव स्त्रियाँ सिर झुका लेती थीं। नये ढङ्ग के हाव-भाव में नवरगराय अपने प्रियतम के मन को झुला देती है, इसलिए झूला जैसी सुखदायक है। नयनविचित्रा चन्द्रकला के समान सुशोभित है, क्योकि "जिस प्रकार चन्द्रकला, भैरव, गौरी (पार्वती) और सुरतरंगिनी (गंगा) से युक्त है, उसी प्रकार वह भी भैरव तथा गौरी रागो से युक्त है और सुरतरंगिनी अर्थात् स्वरो की वो मानो नदी हो है। नयन विचित्रा नाम की वेश्या नयन और बचन मे रति-समय की चेष्टाओ के समान है तथा अपने कामदेव स्वरूप पति के मन को जीतने वाली है तथा उसके मन में सदा विश्राम करती है। तानतरंग वेश्या बड़ी चतुर तथा रागो की सागर है और अपने पूर्ण चन्द्रमा जैसे पति के दर्शन के दिन उसके मन में रागो की लहरें उठा करती हैं। तानतरंग की ताने तन, मन और प्राणो को बेध डालती हैं। वे ताने कामदेव के वाणो की कला रखती है जिनसे बचने के लिए अज्ञान ही तनवाण ( कवच ) का काम देता है अर्थात् अज्ञानी ही उन कलाओ से बच सकता है। रंगराय की उँगलियां सब गुणो को मूल हैं जो मूढ़ मृदङ्ग के मुख में लगते ही उसे शब्दो से भरपूर कर देती है। रंगराय के हाथो, मृदङ्ग के मुख तथा रंगमूर्ति के सुन्दर पैरो ने मानो एक साथ ही सङ्गीत विद्या को पढ़ा है। सङ्गीत के जितने अंग हैं और जिन्हे अनन्त गुणी जन गाया करते हैं, वे सब रङ्गमूर्ति के अंग-अंग में मूर्तिमान रहते है। रायप्रवीण को वीणा से प्रवीणो ( चतुरो ) को सुख होता है।