पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२१५)

आजा। मैं तुझे बार-बार मना करती हूँ कि तू दरवाजे-दरवाजे क्यो घूमती है? मैं शोभावली अनेक स्त्रियो को तुझ पर निछावर करती हूँ, तू ऐसी ही शोभावली है।

[इसमे स्त्री की शोभा की समता रति से न करके कामदेव से की गई है आरसी मे मुँह न दिखाकर, देह को दिखाने के लिए कहा गया है, बतासे जैसे गाल बताये गये है, अधर पर तमोल का वर्णन है तथा सितासित न कहकर तिल चाँवरी सी आँखे बताई गई है। अतः ये सब वर्णन अयुक्त है इसीलिए अयुक्त अर्थान्तर न्यास है]

३-अयुक्त-युक्त अर्थान्तर न्यास

दोहा

अशुभै शुभ ह्वै जात जह, क्यों हूँ केशवदास।
इहै अयुक्तै युक्त कवि, बरणत बुद्धि विलास॥७२॥

'केशवदास' कहते है कि जहाँ पर अशुभ वर्णन किसी प्रकार शुभ वर्णन हो जायें, वहाँ बुद्धिमान कवि लोग अयुक्तायुक्त अर्थान्तर न्यास कहते है।

उदाहरण (१)

सवैया

पातकहानि पितासगहारि वे, गर्भ के शूलनिते डरिये जू।
तालनि को बॅथिबो बध रोरको, नाथ के साथ चिता जरिये जू॥
पत्रफटेतै कटे ऋण केशव, कैसहूँ तीरथ में मरिये जू।
नीकी सदा लगै गारि सगेन को, डांड़ भली जु गया भरिगे जू॥७३॥

पातक (पाप) की हानि भली है, पिता से हार जाना अच्छा है। गर्भवास के कष्टो से डरना अच्छा है तालाबो का बधना निर्धनता का नाश और अपने पति के साथ चिता पर जलना भी अच्छा है।