पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२६३

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(२४६)

उदाहरण (१)

कवित्त

नाह ते नाहर, तिय जेबरी ते सॉप करि,
घालै, घर, बीथिका बसावती बननि की।
शिवहि शिवाहू भेद पारति जिनकी माया,
माया हू न जानै छाया छलनि तिनति की।
राधा जू सौ कहा कहो, ऐसिन की मानै सीख,
सांपिनि सहित विष रहित फननि की।
क्यों न परै बीच, बीच आंगियौ न सहि सके,
बीच परी अगना अनेक आंगननि की॥१०॥

जो दूतियाँ पति का सिंह जैसा भयानक और रस्सी का सॉप बनाकर घरो को नष्ट करके, जंगलो मे घर बसाती है। जिनकी भाषा श्रीशंकर तथा श्री पार्वती मे भी भेद करा दे सकती है और स्वंय माया जिनके छल-कपटो की छाया तक नहीं समझ पाती। मै राधा जी से क्या कहूँ वह ऐसी स्त्रियो की शिक्षा को मानती है जो बिना फन की विषैली साँपिने है। फिर भला बीच क्यो न पड़े जो कृष्ण अगिया तक का मध्यस्थ होना नहीं सह सकते थे, उनके बीच ये अनेक आँगनो अर्थात् घरो मे जाने वाली स्त्रियाँ पड़ी है।

(यहाँ दूती द्वारा मिलन होना चाहिये था, पर वही अनबन का कारण बन गई, अत: 'विपरीत' अलंकार है)

उदाहरण (२)

कवित्त

साथ न सहाय कोऊ, दाथ न हथ्यार, रघु,
नाथ जू के यज्ञ को तुरंग गहि राख्यो ई।