(३) छन्दविराधी पगु दाप ।
सवैया
धीरज मोचन लोचन लोल, विलोकिकै लोककी लीकति छूटी।
फूटि गये श्रुति ज्ञान के केशव, आँखि अनेक विवेक की फूटी।
छाडिदई शरता सब काम, मनोरथके रथकी गति खूटी ।
त्यों न करै करतार उबारक, व्यों चितवै वह बारबधूटी ॥१२।।
___ धैर्य को छुड़ाने वाले उन चचल नेत्रो को देखकर मुझसे लोक की
मर्यादा छूट गई । 'केशव' कहते है कि ज्ञान के कान और विवेक के
अनेक नेत्र भी फूट गये। कामदेव ने अपनी शूरता ( बाण चलाने की
कला ) छोड दी और मनोरथ के रथ की चाल रुक गई । जिस प्रकार
उस वेश्या ने मेरी ओर देखा है, उस प्रकार, ईश्वर न करे, वह फिर
देखे।
[ इस छन्द मे पिमलशास्त्र के नियमानुसार सात अगरण और दो गुरू
होने चाहिए, परन्तु इस नियम का निर्वाह नहीं किया गया । 'लीकतिछूटी'
और 'करतारउबारक' मे भी छदोभग दोष है।
(४) अलकारहीन नग्न दोष ।
सवैया
तोरितनी टकटोरि कपोलनि, जारिरहे कर त्यों न रहोगी।
पान खवाइ सुधाधर प्याइकै, पांइ गयो तस हौ न गहोगी।
केशव चूक सबै सहिहौ मुख चूमि चले यहु पै न सहोगी।
कै मुख चूमन दे फिर मोहि, कै श्रापनी धायसो जाइकहोगी ॥१३॥
___ कोई नायिका अपने नायक से कहती है कि तुमने जैसे मेरी कचुकी
की तनी तोडकर और कपोलो को टटोल कर हाथ जोड लिए वैसा मै
न करूँगी। तुमने जैसे पान खिलाकर अधरामृत पिलाया और फिर
पैर पकड़ लिए पैसे मै न करूंगी । 'केशवदास' नायिका की ओर
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२९
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