सवैया
धीरज मोचन लोचन लोल, विलोकिकै लोककी लीकति छूटी।
फूटि गये श्रुति ज्ञान के केशव, आँखि अनेक विवेक की फूटी॥
छाड़िदई शरता सब काम, मनोरथके रथकी गति खूटी।
त्यों न करै करतार उबारक, ज्यों चितवै वह बारबघूटी॥१२॥
धैर्य को छुड़ाने वाले उन चंचल नेत्रो को देखकर मुझसे लोक की मर्यादा छूट गई। 'केशव' कहते है कि ज्ञान के कान और विवेक के अनेक नेत्र भी फूट गये। कामदेव ने अपनी शूरता (बाण चलाने की कला) छोड़ दी और मनोरथ के रथ की चाल रुक गई। जिस प्रकार उस वेश्या ने मेरी ओर देखा है, उस प्रकार, ईश्वर न करे, वह फिर देखे।
[ इस छन्द मे पिंगलशास्त्र के नियमानुसार सात भगण और दो गुरू होने चाहिए, परन्तु इस नियम का निर्वाह नहीं किया गया। 'लीकतिछूटी' और 'करतारउबारक' मे भी छदोभंग दोष है। ]
सवैया
तोरितनी टकटोरि कपोलनि, जारिरहे कर त्यों न रहोगी।
पान खवाइ सुधाधर प्याइकै, पांइ गह्यो तस हौ न गहौगी॥
केशव चूक सबै सहिहौ मुख चूमि चले यहु पै न सहौगी।
कै मुख चूमन दे फिर मोहि, कै आपनी धायसो जाइकहौगी॥१३॥
कोई नायिका अपने नायक से कहती है कि तुमने जैसे मेरी कचुकी की तनी तोड़कर और कपोलो को टटोल कर हाथ जोड़ लिए वैसा मै न करूँगी। तुमने जैसे पान खिलाकर अधरामृत पिलाया और फिर पैर पकड़ लिए वैसे मै न करूँगी। 'केशवदास' नायिका की ओर